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आज अचानक मेल चेक की तो एक मेल आया,
अपने कालेज का नाम शाेर्ट फोर्म में, मैने सब्जेक्ट में पाया |
एक सच्ची बात बोलूं?
दिल में आया रहने दूं? या ये मेल खोलूं?
अचानक से एक सैेलाब यादों का आँंखों के सामने आगया,
कुछ पल के लिये मेरे कमरे में अन्धेरा-सा छा गया।
वकील जो ठहरे, जज बनकर हम
खुद के तजुर्बे, खुद ही तोलने लगे,
जो किताब थी खट्टी-मीठी यादों की
उसका एक-एक पन्ना खोलने लगे।
पेहली याद इस अन्दाज़ में सामने आई तो लगा की
हम में कुछ तो बात अलग है,
जब seniors को भईया-दीदी नहीं, सर और मैम बोलने लगे।
पेहला कदम पहले प्यार की तरह न कभी मैंने भुलाया था,
उदास हुआ था मन जब मेरा,
इसी की यादों के पालने में उसे झुलया था।
चाहे माँ मेरी दूर थी मेरे हॉस्टल से हज़ारों मील लेकिन,
देखा तो उनकी झलक को अपनी टीचर्स में पाया था।
जब एहसास हुआ इस बात का कि बडा भाई घर पर है,
तो आज़ादी के पर बेझिझक खिल गये।
जब डबल विंग पर नज़र गयी तो याद आया,
हे राम! यहां भी सीनियर्स मिल गये!
जब seniors मिले तो जाना fall-in कैसे देते हैं,
अब खुद पर हैरत होती है, सौ- सौ नाम कैसे रट लेते थे।
Double wing से आवाज आए तो
खुद ही “येस सर!” कर देते थे,
बिना कहे बाइज़्ज़त हम दस-दस बोतलें भर लेते थे।
मन कभी बेदार भी था,
समय कहर-हज़ार भी था।
हर मुश्किल से हार रोज़ लड़े,
क्योंकि सीनियर्स का प्यार भी था।
जितना चाहूँ आसमानों को छु लूं,
यह कॉलेज मेरा संसार भी था ।
स्टारटिंग के दिनों में बैच मेट्स के साथ
हैंगआउट का हर ठिकाना ढूंढा था।
मांँ कसम मोहाली की सडकों पे
हर रोज अपना तराना गूँजा था।
जब भूख लगी तो नानी याद आई थी,
केटल की तेज आँंच पे हमने फिर मेैगी भी बनाई थी।
दोस्तों में ड्यूटी को ऐसे बाँटा हुआ था,
एक लाता, एक बनाता और एक कोे धोने के लिये केटल पकडाई थी।
रुम के ऐसे कोने खोजे थे,
जहाँ वॉर्डन सर से केटल छिपाई थी।
मोहोब्बत का एक एक पडाव, बड़ी नज़कत से चढ़े,
कभी रुके, कभी सम्भले, कभी गिर भी पड़े।
दिलबर यूं खफा भी था,
जांनशी बेवफा भी था।
दिल टूटा तो गम कोक में मिलाकर यार चल पड़े।
दिलां नु ठगदियां गल्लां मिठ्ठियां वी सी,
बक्से में पड़ी घर से गीली चिठ्ठिआँ भी थी।
MPH में उछल उछलकर सीटीयाँ भी मारी,
कन्धों पे ‘रि’ की फीतियाँं भी थी।
जैसे -जैसे साल बढे, अलग अलग तजुर्बे होते गये,
मस्ती शोर -गुल से न जाने कब
प्लेसमेन्ट की टेंशन में खोते गये।
कुछ जज बने, कुछ वकील,
अब कॉन्टैक्ट्स में पास मगर दिल से दूर होते गये।
यही मेरे यार है, इन्ही के साथ
हॉस्टल का हर वक्त बिताया था।
दूसरों की लडाई करवा के,
फिर इसे भी बचाया था।
सौ का तेल स्कूटी में डलवाके
चंडीगढ़ का गेड़ा भी लगाया था।
गरम-गरम चाय का चस्का लगाया था।
सर्दी की रातों में 43 के परान्ठों को बटर लगा के खाया था।
यही मेरे यार है, यही दिलदार हैं।
गर्दिश की रातों का मेरा यही परिवार है।
बैच हुडी की लड़ाई में इसी ने साथ निभाया था।
मेरी नई-नवेली बुल्लेट पे स्क्रेच मार के भी यही लाया था।
कहता था इसे देख के मुझे याद करेगा, झूठ नहीं था…
फटी जेबों को कैसे हम सिलें,
उधार के पैसे कभी न मिले।
अब शायद चाहिये भी नहीं,
कुछ दिन बस हॉस्टल में गुज़ार लूँ
सौदा फायदा का है यही।
काश! फिर से गेट पे गार्ड मेरी जेबों को टटोले,
काश! फिर से मेस वाले भईया “सिर्फ एक!” लेने को बोले,
काश! फिर से डबल विंग से कोई बोले; 1st ईयर!
जहां तक सवाल रहा जाने का…
अपना घर है, हो आते हैं।
आर्यन (2nd ईयर)