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चाहे रोज़ सुनी-पढ़ी जाने वाली ख़बरें, घटनाएँ हमें कितना ही निराश क्यों न कर दे, आज जालंधर से लौटते हुए फिर यह आभास हुआ कि इक़बाल की पंक्तियों की सत्यता टाली नहीं जा सकती —
“कुछ बात है कि ह़स्ती मिटती नहीं हमारी!”
संभवतः एक सकारात्मक घटना अनेक नकारात्मक घटनाओं पर भारी होती है, लंबे समय तक चेहरे पर अनायास ही मुस्कान लाने में सक्षम होती है!
बस के सफर में (मूलत: हर सफर में) मुझे अक्सर नींद आ जाती है – कच्ची सी, पर सुहानी सी! बस की गति के कारण तीव्र हुई हवा को चीरते हुए किसी लोक-गीत के स्वर मेरे कानों में पड़े; पलकें उठाकर देखा तो करीब बारह साल का एक बच्चा, जो पिछले स्टॉप से बस में चढ़ा था, एक हाथ में खड़ताल लिये गा रहा था| अपनी उम्र व दशानुसार काफी अच्छा! मैनेे फिर अपने हाथों का तकिया बनाया और उसके गीत के लय को सुनते-सुनते सो गई| कुछ देर बाद वह सबसे रुपए माँगने लगा| मैं सो रही थी सो उसने मुझे आवाज़ देते हुए कहा, “दीदी! दस रुपए दे दो|” अधखुली-सी नींद में मैने जेब से एक दस का नोट निकाल कर उसे थमाया और फिर मेरी नींद उड़ न जाए सो तुरंत आँखें बंद कर ली| मैने सोने के लिये सर झुकाया ही था कि उसने फिर आवाज़ दी – “दीदी!” आँखें खोली तो देखा कि वह दस का नोट मेरी ओर बढ़ाए खड़ा है| मैने असमंजस भरी सवाली आँखों से उसे देखा तो वह कहने लगा,”आपने गलती से बीस रुपए दे दिये थे|” उसके इन शब्दों से उपजे हैरानी व गर्व के मिश्रित भावों से मैं उबर पाती, उससे पहले ही वह नोट रख कर बस से उतर गया| इस बार मैं सो न सकती थी!
जाने कहाँ से पाएँ होंगे उसने इतनी छोटी-सी आयु में इतने उच्च आदर्श! ऐसे आदर्श जो उसे बिना कुछ किये हाथ नहीं फैलाने दे रहे थे, किसी की भूलस्वरूप मिला मुनाफ़ा नहीं लेने दे रहे थे! संभवत: कहीं न कहीं किसी गव्हर में छिपे यह संस्कार ही हैं, यह अादर्श हैं, जिनके कारण इतने दबाव व प्रयासों के बावजूद, आज भी हमारी पहचान, हमारी संस्कृति – संस्कृतियों के इस महासागर में – जीवित है| शायद यहीं कारण है कि इक़बाल की पंक्तियाँ आज भी सार्थक लगती हैं, सच्ची लगती हैं| हाँ, कुछ बात है, कि ह़स्ती मिटती नहीं हमारी!
– गरिमा दीक्षित