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बचपन के दिन थे,
गर्मियों का मौसम था,
छुट्टियाँ थी,
और पूरा परिवार साथ था।
बचपन में गर्मी की छुट्टियों
का मतलब, बस ये था
कि रसीले आम खाएँ,
चुस्की से जीभ रंगाएँ,
खेल खेल कर थक जाएँ,
और चोट लगने पर डांट खाएँ।
पर ये वाली छुट्टियाँ
थोड़ी अलग-सी थी
कोई खेल था नया,
जिसकी मुझे ख़बर नहीं थी।
उस दिन मैंने वो खेल सीखा
मुश्किल बड़ा था, इसलिए ही तो,
चाचू ने सिर्फ मुझे सिखाया।
उनकी हिम्मतवाली, सुंदर परी जो थी मैं,
बस खेल का एक ही नियम था,
कि ये खेल हमारा राज़ था।
दर्द भी हुआ, चोट भी लगी
खून भी निकला, पर
चाचू ने कहा, वो
तो हर खेल में होता है
अब जब बड़ी हूँ तब पता है,
कि वो खेल भरोसे
और इज़्ज़त का था,
वो दिन, वो छुट्टियाँ,
मुझे सिर्फ रुलाती है,
बचपन की यादें सिर्फ डराती है।
काश उस दिन थोड़ा समझ लेती,
काश घर पर बता देती,
काश आवाज़ उठा लेती,
काश बचपन बचा लेती।
लेकिन अब अंदर से,
मर गई हूँ,
खुद के पास जवाब ही नहीं,
सिर्फ डर है और शर्मिंदगी।
रातों की नींद में,
दिन के उजालों में,
बस ख़ुद को कोसती हूँ,
काश बचा लेती, मैं अपना बचपन,
काश बचा लेती।
हर लफ्ज़ से, रकीब के, अब डर टपकता है।
हर बार किसी के रोकने से अब दिल धड़कता है।
क्यों हर आवाज़ कानों को ख़ौफ़ की गूंज लगती है,
हर ज़र्रा मेरे जिस्म का, लहू की बूंद लगती है।
अब आदत से मजबूर, कमज़ोरी से रज़ामंद हूँ मैं,
खुद ही कहीं खुद ही में बंद हूँ मैं।
ऐसा नहीं है की मैंने कोशिश नहीं की,
हर बार साज़िश करी है अपने डर को हराने की,
हर बार कलाई मरोड़ी है मैंने हर
बहाने की।
पर नाजाने क्यों मैं हार जाती थी,
कमी थी शायद मेरे अपनों की मुझे अपनाने की।
मानती हूँ मुझसे देर हुई थी,
घर लौटते हुए गली अंधेर हुई थी,
तो आप ही भर लेते मुझे अपनी बाहों
मे,
मेरी हर आस, घुट-घुट के मेरे दामन मे ढ़ेर हुई थी।
हर बार गिरी हर बार उठी,
अपने बहते लहू से मैंने अपनी ज़मीन को सींचा है
मौत और ज़िन्दगी के पतले किनारे से
कईं बार खुद को खींचा है
इल्ज़ाम लगाने अब मुझे मंज़ूर नहीं,
क्यों करूं बर्बाद मैं कल को,
कल से, कल जो बीता है।
क्या करें, हिम्मत बाँधनी पड़ती है।
चार दीवारें, काला कमरा और कचोटता हुआ शरीर, कुछ ख़ास अच्छे दोस्त नहीं होते।
शायद जब जाऊंगी तो काफ़िर होने के इल्ज़ाम होंगे मुझ पे,
शायद अब ज़िन्दगी से ज़्यादा कुछ मौत के इल्ज़ाम होंगे मुझपे।
– दिलीशा और आर्यन
Photo Credits: Against Abuse Inc.