भगवत पुराण की कथानुसार हिरण्यकश्यपु एवं हिरण्याक्ष सनतकुमारों के अभिशाप के परिणाम स्वरुप पृथ्वी पर पैदा हुए भगवान् विष्णु के द्वारपाल जय एवं विजय थे. सत्य-युग में हिरण्यकश्यपु एवं हिरन्यायक्ष- एक साथ हिरण्यस नामक – दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति एवं ऋषि कश्यप की असुर संतान थी।
दोनों भाइयों को चारों ओर विनाश और अराजकता फैलाने के लिए जाना जाता था, और उन्होंने अपनी आसुरी गतिविधियों से मनुष्यों और देवताओं को समान रूप से प्रताड़ित कर रखा था। देवताओं ने इस समस्या के समाधान हेतु एक साथ भगवान् विष्णु से सहायता की गुहार लगाई।भगवान ने भक्तों की प्रार्थना स्वीकार की एवं हिरण्याक्ष को मारने के लिए वराह अवतार लिया जो उनका तीसरा अवतार माना जाता है।
हिरण्याक्ष ने भूदेवी को गहरे समुद्र में छिपा दिया था, परन्तु वराह रूप में भग्वान विष्णु उन्हें खोजने में सक्षम रहे। उन्होंने हिरण्याक्ष का वध कर भूदेवी को स्वतंत्र किया।
देवताओं एवं मनुष्यों के लिए यह उत्सव से काम न था, किन्तु उनकी प्रसन्नता पर हिरण्याक्ष के भाई ने ग्रहण लगा दिया। प्रतिशोद्ध की भावना से ओतप्रोत, उसने भग्वान विष्णु के विनाश का कारण बनने की शपथ ली, और साड़ी पृथ्वी में अपरिवर्तनीय विनाश का आरम्भ किया। उसकी सेना ने हर जगह त्राहि-त्राहि फैलाने का प्रयास किया, जिसे देवताओं की सेना ने विफल किया।
हिरण्यकश्यपु को समझ आ गया था की उसे विष्णु को पराजित करने की लिए अमरत्व प्राप्त करना होगा। अतः उसने ब्रम्हा की नाम का घोर तप आरम्भ किया। देवराज इंद्र को हिरण्यकश्यपु की अनुपस्तिथि असुर शक्ति को सदा की लिए नाश करने का उत्तम अवसर लगा। उन्होंने ने अपनी सेना की साथ असुरों का सर्वनाश कर दिया, और हिरण्यकश्यपु की गर्भवती पत्नी कयाधु को बंधी बना लिया, किन्तु देवऋषि नारद की हस्तक्षेप की कारण उसे ले नहीं जा सके। नारद ने कयाधु को अपने आश्रम में स्थान दिया। वहां देवऋषि से भगवान विष्णु की कथायें सुनकर कयाधु और उसके शिशु दोनों की मन भगवान की प्रति भक्ति भावना जाएगी एवं समय साथ प्रबल होती गयी।
वहीं दूसरी ओर ब्रम्हा देव ने हिरण्यकश्यपु की तप से अति-प्रसन्न होकर उसे वरदान मांगने को कहा। अमरत्व का वरदान मिलना असंभव था अतः हिरण्यकश्यपु ने ब्रम्हा देव से यह वरदान माँगा:
” हे प्रभु! कृपा करके मुझे वरदान दीजिये की मैं किसी बी जीवित संस्था से मृत्यु का सामना कर सकूं। मैं किसी भी घर की बहार या भीतर, दिन या रात की दौरान, पृथ्वी पर या आकाश में नहीं मर सकूं। मुझे यह अनुदान दे की मेरी मृत्यु आपके द्वारा बनायी गयी, न किसी हथियार, न किसी मनुष्य या जानवर द्वारा बनायी गयी किसी वास्तु से हो। मेरा कोई देव, दानव, मनुष्य, पशु, प्रतिद्वंती न हो।”
यह वर प्राप्त कर उसने अकेले सभी देवताओं को हराकर एवं अपनी पत्नी और पुत्र को लेकर धरती पर अधिकार किया।
प्रह्लाद की अखंड विष्णु भक्ति उसकी पिता से सेहन नहीं हुई। उसने प्रह्लाद को मारने की अनेक प्रयास किये, परन्तु तलवारों, विषैल नागों, पागल हाथियों इतियादी का भक्त प्रह्लाद पर कोई प्रभाव न हुआ। आवेग में आकर हिरण्यकश्यपु ने अपनी बहन होलिका।का सहारा लेकर प्रह्लाद का जीवित जलाने का प्रयास किया, किन्तु प्रह्लाद की भक्ति की शक्ति से होलिका, जिसे कभी न जलने का वरदान था, भस्म हो गयी।
अंतत: प्रह्लाद का लेकर हिरण्यकशयपू एक विशाल कक्ष में गया और उससे पुछा की उसे दिखाएं की विष्णु कहाँ हैं। प्रह्लाद का उत्तर था की वे हर जगह हैं। हिरण्यकश्यपु ने पुछा की क्या वे इस खम्बे में हैं। प्रह्लाद ने उसके उत्तर में हाँ कहा।
यह सुनकर उसने उस खम्बे का लात मारकर तोड़ दिया, और अंदर से दहाड़ता हुआ भगवान विष्णु का नरसिंघ रूप निकला। नरसिंघ ने हिरण्यकश्यपु का गले से पकड़ा और उसे घसीट कर चौखट पे ले गया, जो न भवन की अंदर था न बहार।अपनी गॉड में; जो न धरती थी न आकाश, हिरण्यकश्यपु का लेटाकर उसे परदोष काल में( जो दिन न रात) अपने नाखुनो से उसका वध कर उसके पापों का अंत किया।
प्रह्लाद का आशीष देकर उसका राज्याभिषेक किया गया, और उसने, प्रेम, सच्चाई, वीरता, करुणा से राज किया।
यह लेख शरण्या श्रीवास्तव ने लिखा था ।