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आज मुकद्दमों की लंबित तारीख़ मिली और अनवरत वाद-विवादों के बीच कुछ समय मिला तो लगा जैसे मैं एक यंत्र का अंश हूँ जो चलता ही जा रहा है, बस .. चलता जा रहा है, न विराम न कोई विश्राम! सोचने का एक पल भी नहीं – कब? क्यों? कैसे? हर जगह हर एक के अपने विचार है, मत है, विचारों का कोलाहल है| इस कोलाहल में हृदय का स्वर सुनाई नहीं देता | पर,
“इस कोलाहल में शांति सम,
उदासीनता में क्रांति सम,
इस जल्दबाज़ी के दौर में ठहराव के कुछ पल, –
है हमारा ‘शाद्वल’ !”
हर एक का होता है, हर एक के लिए होता है, कुछ अनोखा होता है ये ‘शाद्वल’! – जहाँ लोग ठहरते है, कोई सोचता है, कोई सोच बदलता है, और कोई बस सुनता है – अपने दिल की आवाज़ – पत्तों की छाँव में बैठ, क्योंकि एक ‘ब्रेक’ तो बनता है !
जिस प्रकार सूर्यास्त के ढ़लते प्रकाश को प्रतिबिंबित करते नीर की सुंदरता शब्दों की मोहताज नहीं होती, उसी प्रकार इस शीर्षक की सटीकता का वर्णन तो नहीं, पर इसके अस्तित्व का कथानक अवश्य है|
रेगिस्तान का नाम सुनते ही आपके मन में एक श्वेत-विरक्त पथिक आता होगा, जो अपने ऊँट के संग चला जा रहा है; कदम साथ नहीं दे रहे, पर मन ही सही; हमसफर साथ नहीं, ऊँट ही सही; झरना न हो, दो बूँद ही सही ! जानता तो है वह आज नहीं तो कल खत्म हो जाएगा बचा भोज, ज़रूरत तो होगी पानी की – या तो मीलों नीचे खोद लिया जाए, या फिर बस चलते जाया जाए – किसी और के लिए न सही, खुद अपने लिए, अपनी अाशा के प्रज्जवलित उस दीप के लिए, एक ‘शाद्वल’ के लिए !
हमारी मातृभाषा, जिसे हमारे पूर्वजों ने अंग्रेज़ों की धूप के तप में भी ज़िंदा रखने का प्रयास किया, जिसने उदारवादी बनकर हर भाषा, हर बोली को अपनाया, आज धूल तले धँसती जा रही है| यह हिंदी-ऊर्ध्वाधर
हमारा प्रयास है उस धूल को साफ़ कर हिंदी को पुन: उसका वह विगत दर्जा लौटाने का, जिसकी वह सच्ची अधिकारी है| कालेलकर की दबी डायरी और बच्चन की कविताओं के संग नव-विचारों की सुगंध लिए- हमारा ‘शाद्वल’ – एक प्रयास है इस बोलियों-भाषाओं के सरोवर के पंक में – नीरज पनपाने का !